जीवन मर्यादाएं
धूसर धुन्धल चित्र लिए
हस्तरेखाओं की तंग घाटियों में
हिचकोले खाती रहीं.....
ऊबड़-खाबड़
बीहड़ों में भटकती
गहरी निस्सारता लेकर
कैद में छटपटाती
आंखों में कातरता
भय और बेबसी की
अवांछित भीड़ लिए
इक तारीकी पूरे वजूद में
उतरती रही ......
वक्त नफ़ासत पूर्ण तरीके से
सीढ़ियों पर बैठा
तस्वीर बनाता रहा ...
तारों को
छू पाने की कोशिश में
न जाने कितने लंबे समय
और संघर्षों से
गुजर जाना पड़ा .....
आज मैंने
अंधियारों को चीरकर
चाँद से बातें करना
सीख लिया है
रातों को आती है चाँदनी
दूर पुरनूर वादियों की
गहरी तलहटी से
दिखलाती है मुझे
शिलाओं का नृत्य करना
उच्छवासों से पर्वतों का थिरकना
समुंदरी लहरों के बीच
सीपी में बैठी एक बूंद का
मोती बन जाना
उड़ते हुए पन्ने में
किसी नज़्म का
चुपचाप आकर
मेरी गोद में
गिर जाना
आज जब
दूर दरख्तों से
छनकर आती धूप
थपथपाती है पीठ मेरी
धैर्य सहलाता है घाव
हवाएं शंखनाद करतीं हैं
तब मैं ....
वे तमाम तपते हर्फ़
तुम्हारी हथेली पे रख
पूछती हूँ
उन सारे सवालों के
जवाब ...........!!
हरकीरत जी सबसे पहले मैं प्रतिक्रिया देना चाहूँगा के मैं आपका बहुत बहुत शुक्रगुजार हूँ के आपने मेरे ब्लॉग के लिए कोई कविता भेजी है. धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही खूब लिखा है.........
ReplyDeleteवक़्त को गहराई से समझा है इस कविता में, शब्दों को सुंदर तरीके से बांधना कोई हरकीरत जी से सीखे
bahut badhai faraz sahab, aapka blog bahut achchha or jaankari bhara hai,,,,,
ReplyDeleteउत्तम! ब्लाग जगत में पूरे उत्साह के साथ आपका स्वागत है। आपके शब्दों का सागर हमें हमेशा जोड़े रखेगा। कहते हैं, दो लोगों की मुलाकात बेवजह नहीं होती। मुलाकात आपकी और हमारी। मुलाकात यहां ब्लॉगर्स की। मुलाकात विचारों की, सब जुड़े हुए हैं।
ReplyDeleteनियमित लिखें। बेहतर लिखें। हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। मिलते रहेंगे।
Bahut khoobsoorat shabdon men ,gathe shilp ke sath likhi gayee kavita.Harkeerat evam Faraz ji donon ko badhai.
ReplyDeleteHemant Kumar
हमेशा की तरह ,,,कमाल,,,,,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
ReplyDeletezindgi zindadili ka naam hai, murda dil kya khak jiya kartehain. narayan narayan
ReplyDeleteआज जब
ReplyDeleteदूर साल के दरख्तों से
छनकर आती धूप
थपथपाती है पीठ मेरी
हवाये सहलाती हैं घाव
धैर्य शंखनाद करता है.
... बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...
मुझे रमेश रंजक के गीत की पँक्यतियाँ याद आ रही हैं:
धूप में जब भी जले हैं पाँव
सीना तन गया है
और आदमकद हमारा
जिस्म लोहा बन गया है.
यही तो है
"धैर्य का शंखनाद"
सुन्दर मुहावरे के लिए बधाई
Bahut Sundar bhavabhivyakti !!
ReplyDeleteआभार आपका अच्छी कविता पढने का मौका देने के लिये।
ReplyDeleteचाँद से बातें करना सीख लिया है
ReplyDeleteरातों को आती है चाँदनी
दूर पुरनूर वादियों की
गहरी तलहटी से
दिखलाती है...
शिलाओं का नृत्य करना
उच्छवासों से पर्वतों का
समुंद्री लहरों की थपेडो़ के बीच
आभार आपका अच्छी कविता पढने का मौका देने के लिये।
एक बेहतरीन रचना..बहुत खूब. आभार.
ReplyDeleteशामिख जी बहोत बहोत शुक्रिया ये नज्म प्रकाशित करने के लिए...! हाँ एक पंक्ति में एक
ReplyDeleteशब्द छूट गया है कृपया उसे सुधार दें....''उच्छवासों से पर्वतों का थिरकना''...!
Bahut kamaal ki rachna.. Bahut bahut khoob..
ReplyDeleteAabhaar..
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें। its a wonderful blog with great positivity and motivating thoughts...
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