Wednesday, September 9, 2009

हादसे की शिकार जाने बचाने की मुहिम

सड़क पर आये दिन जाने कितने ही हादसे होते रहते हैं जिन्हें देखते हुए आगे बढ़ जाना समाज की आदत हैं लेकिन शरीफ भाई इस रीति के खिलाफहैं. कहीं भी दुर्घटना होती है तो वो और उनकी क्रेन निकल पड़ते हैं लोगों की ज़िन्दगी बचाने के लिए.
शरीफ भाई बदायूं में पुराना बस स्टैंड के पास रहते हैं.

पिता लियाक़त अली "चेन टिकल" से सीधा करके दबे वाहनों से लोगों को निकालते. बड़ा परिवार था सो भरण पोषण को कुछ मेहनताना भी लेते. शरीफ भी पिता का हाथ बंटाते थे. शरीफ के पिता ने अज्ञात शवों के अंतिम संस्कार की एक अनोखी प्रथा शुरू की थी. ३५ बरस के शरीफ भाई कहते हैं कि खुदा का करम है कि धीरे धीरे बरकत होने लगी. पहले मैंने एक क्रेन ली थी.अब दो हो गईं. दुर्घटना में दबे लोगों की चीख सुनकर उनका दिल दहल उठता है. ऐसे में उन्होंने इस काम के पैसे लेने बंद कर दिए. ज्ञात शवों के अंतिम संस्कार की पिता द्वारा डाली गई नीवं का आज भी बखूबी पालन कर रहे हैं. वो अज्ञात शवों का उनके धर्मं के अनुसार ही अपने खर्चे पर अंतिम संस्कार कर देते हैं. जिले में हर माह दो चार शवों के अंतिम संस्कार का सौभाग्य प्राप्त होता है.

अब शरीफ भाई को जिले भर में कहीं भी दुर्घटना में फंसे लोगों के बारे में पता चलता है तो वो अपनी दो क्रेन और छः लेबर के साथ बिना पैसे लिए मदद को चल देते हैं. उनके पॉँच भाइयों के पास १२-१३ वाहन हैं. उनका कह ना है कि बच्चों में सामाजिक संस्कार ड़ाल रहे हैं.

Tuesday, June 2, 2009

एक चुनाव ऐसा भी

यह चुनाव विधानसभा या लोक सभा का नहीं यह चुनाव था अपने आप से. एक चुनाव तो डॉ. राजेश मिश्र ने भी १७ साल पहले लड़ा था जिसे उन्होंने जीता भी और आज तक उसी सीट पर डटे हुए हैं. ऐसा कोई नहीं है जो उन्हें हरा सके. एक ओर संसार की तमाम सुख सुविधाएँ थी इनसे राजेश ऐशो आराम उठा सकते थे दूसरी तरफ़ थी कशमकश भरी ज़िन्दगी जिसमे उन्हें दूसरो की ही चिंता थी. उन्हें मालूम था के इस रस्ते पे चलने पे अजीबोग़रीब लोग मिलेंगे. लेकिन उन्हें तो सवार था दूसरो को जागरूक करने का जूनून.
इस समय डॉ. राजेश मिश्र ४२ साल के हैं. वह इन दिनों जाग्रति अभ्यान पर हैं. पूरे साढ़े सात हज़ार किलोमीटर की यात्रा दिल्ली से शुरू की। यात्रा का मकसद लोगों को राष्ट्रिये एकता और परिवर्तन के प्रति जागरूक करना था. पिता का स्वर्गवास हो गया फिर भी इस मुश्किल घडी में वह डिगे नहीं. दुनिया से दूर अपना ध्यान पढाई में लगाया. पढाई के दौरान ही वह महात्मा गांधी के करीबी डॉ. विठालदास मोदी से मिले. उनका प्रभाव ऐसा पड़ा के राजेश ने देशभर के लोगो के लिए कुछ करने का प्रण लिया.
नैचरोपथ के डाक्टर बन चुके राजेश ने हरदोई में लोगो का इलाज शुरू किया. बहुत ही कम ५ रूपये का पर्चा बना कर लोगो को इलाची मुनक्का दवाई के रूप में देते हैं. उनका विवाह भी हुआ लेकिन इन सब में राजेश का मन नहीं लगा.
मन में उथल पुथल थी। फिर एक दिन उन्होंने दिल्ली के राजघाट से हरदोई तक की यात्रा की. यह बात २००६ की है। इसके बाद युवा संकल्प यात्रा और अब जाग्रति अभियान पर हैं. कहते है के मेरे काम को लेकर घर में कोई विरोध नहीं हुआ. क्या इन यात्राओं का लोगो पर कोई लाभ हुआ? इस सवाल के जवाब में कहते हैं के लोगो के हमारे पास फोन आते हैं जिसका मतलब यही है के लोगो पर यात्राओं का असर हो रहा है.
खुद डाक्टर राजेश मरीजों से होने वाली आय यात्राओं पर खर्च करते हैं. हैरत होगी यह जानकर के उनका आजतक किसी बैंक में कोई अकाउंट तक नहीं है।यात्रा के दौरान लोग आपको कटुवचन कहते होंगे जवाब था..... मैं उन्हें मनोरोगी समझ साफ माफ़ कर देता था. ऐसे है हरदोई के राजेश मिश्रा. यूँ तो हजारों लोग लोक सभा और विधानसभा का चुनाव लड़ते है लेकिन कोई राजेश जी जैसा चुनाव लादे और जीते तो अलग बात होगी.

Sunday, April 26, 2009

वतन की याद आई तो छोड़ आये कैलिफोर्निया

बचपन की यादें भला किसे नहीं सताती. अपनी अक्लमंदी के बल पे सात समंदर पर जा के अपनी काबलियत का डंका पिटवाने वाले शख्स भी उस मिट्टी से मोह नहीं त्याग पाते हैं जिसमे वह पले बढे होते हैं. दुनिया के २०० बहतरीन टेक्नोकिरेट में शुमार साउदर्न कैलिफोर्निया के विजिटिंग प्रोफ़ेसर जमशेद आकिल मुनीर बचपन की इन्ही यादों की बदोलत शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा जिला) से अपना नाता जोड़े हुए हैं.
शाहजहांपुर एजूकेशन एंड कल्चर सोसाइटी के अध्यक्ष मोहम्मद लतीफ़ खान की गुजारिश पर शाहजहांपुर आये प्रोफ़ेसर जमशेद मुनीर से जो भी मिला सादगी में लिपटी उनकी काबलियत देखकर दंग रह गया. शिक्षा खेल और औद्योगिक तकनीक में अच्छी पकड़ रखने वाले इन ८० साल के बुजुर्ग से जो भी मिला उसने इनकी आँखों में कुछ नया करने का जज्बा ही देखा.
गंभीर किन्तु हंसमुख मिजाज के प्रोफ़ेसर मुनीर मशहूर शायर जोश मलीहाबादी के शहर मलीहाबाद (लखनऊ) के रहने वाले हैं. बाद में समय का थपेडा उन्हें ज़िन्दगी सवांरने के लिए यहाँ से उड़ा ले गया. नैनीताल के सैंट मैरी कॉन्वेंट स्कूल से आरंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने अलीगढ यूनिवर्सिटी से १९४४ में इंटर और १९४८ में BSc. की और वहीँ पर १९५८ तक रीडर रहे.
इसी के साथ उन्होंने सफलता के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए. उन दिनों आर्मी के इंजीनियरिंग चीफ मंगत राम की सलाह पर वह वर्ल्ड टूर पर निकले. मुंबई से कोलम्बो, ओकोलामा, टोकियो, हांगकांग होते हुए लॉस एंजिल्स पंहुचे. वहां यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउदर्न कैलिफोर्निया उनकी मंजिल बनी. वहीँ उन्होंने इंडसट्रियल इंजीनियरिंग में MSc. की.

वहीँ पर उन्होंने गामा बीटा रेज़ मापने वाले प्रोजेक्ट टाइप इस्पिकोस्कोपे का अविष्कार किया. वतन की याद आई तो प्रोफ़ेसर मुनीर तीसरे टर्न में अध्यापन का प्रस्ताव ठुकराकर वापस लौट आये और AMU में हेड ऑफ मेकेनिकल इंजीनियरिंग के हेड बने.

वह चाहते तो इस्पीकोस्कोपे को अमेरिका में ही पेटेंट करा लेते लेकिन अपने जीवन की अमूल्य धरोहर को राष्ट्रीय संपत्ति बनाने के लिए इसे भारत में ही पेटेंट कराया. उनकी इस खोज को अमेरिका ने हाथों हाथ लिया और विश्व के दो सौ तकनीकी विशेषज्ञों में उन्हें गिना.
यही नहीं उच्च स्तरीय मेधा के धनी प्रोफ़ेसर मुनीर ने खेलों की दुनिया में भी नाम कमाया. वह अलीगढ यूनिवर्सिटी में होर्से रीडिंग क्लब के अध्यक्ष भी रहे. उसी समय रोलर सकेटिंग में भी चैम्पियनशिप हासिल की. इतना सब होने के बावुजूद उनेहे घमंड और गुरूर छू भी नहीं सका है.

Sunday, March 1, 2009



कराटे का जूनून ले गया अमेरिका


जूनून में इन्सान क्या नहीं कर गुज़रता. इसके लिए वह कुछ भी करने से पीछे नहीं हटता. मोहम्मद हनीफ खान भी उन्हीं जुनूनियों में से एक हैं जिन्होंने जुडो व् बूडो कराटे का पूरा इल्म हासिल करने के लिए अमेरिका तक का सफ़र तय कर डाला। यह दीगर है कि इस मुकाम तक पहुँचने के लिए उन्हें अमेरिका के एक होटल तक में काम करना पड़ा.


वह शाहजहांपुर के रहने वाले हैं उम्र ३६ साल है और ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं। सिर्फ ८वी पास हैं. वह बचपन था जब उनके हाथ पैर चलने लगे थे और जिस्म को फौलादी बनाने में वह दिलचस्पी रखते थे। फ़क़त १४ साल की उम्र में कराटे सीखा और उस्ताद थे मुंबई के मुहम्मद अली। इसके बाद दिल्ली रहकर ५ साल तक जुडो सीखा और पेट भरने के लिए दिल्ली में ही चुनरी बेचीं और साइकल मिस्त्री के पास भी काम किया और फिर स्यूडो कराटे सीखा और ब्लैक बेल्ट पा लेने के बाद बॉडी बिल्डिंग का अभ्यास किया।सीखने के बाद उन्होंने लगभग ३ हज़ार लोगों को दिल्ली में हुनर सिखाया और खुद सीखने के लिए अमेरिका भी गए. अंग्रेजी न जानने के कारण उन्हें वहां बहुत दिक्क़त आई लेकिन वहां रह रहे भारतियों ने उनकी बहुत मदद की. वह बताते हैं कि "वर्ल्ड स्यूडो कराटे ओर्गानिज़शन" के बैनर तले उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला. ट्रेनर अंग्रेजी में बोलते थे उन्हें बहुत दिक्क़त आती थी इसके लिए उन्होंने कुछ शब्द रट रखे थे. उन्होंने वहां पर भी बच्चों को सिखाने का काम भी किया। अमेरिका में ५ साल रहे और ब्लैक बेल्ट लेकर ही लौटे जिसके लिए उन्हें एक होटल में भी कम करना पड़ा.


वह चाहते हैं कि जो परेशानियाँ उन्होंने उठाईं जुडो काराटे सीखें में वह दूसरो को न उठाना पड़े इसके लिए उन्होंने भारत में ही एक जुडो कराटे स्कूल भी खोला है.


कौन कहता है के आसमा में सुराख़ हो नहीं सकता


एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो

Saturday, February 21, 2009

आदत



"पुनीत सहलोत की कविता"


कोशिश थी हवाओं की

हमें पत्तों की तरह उडाने की,

साजिश थी ज़माने की

हमें हर वक्त आजमाने की,

साथ किसी का मिल न सका कभी,

पर आदत हमारी थी हर बार जीत जाने की.

यकीन था ख़ुद पर,

कुछ कर गुजरने की ठानी थी,

दीवानगी जो थी मंजिल को पाने की,

उसे जूनून अपना बनाने की

आदत हमारी थी.

राह जो चुनी थी हमने अपनी,

हर मोड़ पर मिली मुश्किलों की सौगात थी,

हर छोर पर गुलशन खिला दिए हमने,

कांटो से भी यारी की,

आदत हमारी थी.

ढल चुका था सूरज,

अब चाँद से मुलाक़ात की बारी थी,

ख्वाब जो देखे थे इन बंद आंखों ने,

हकीक़त उन्हें बनाने की,

आदत हमारी थी.

Monday, February 16, 2009

गज़ल


हरकीरत जी के बाद पेश है मनु 'बेतखल्लुस' साहब की एक गज़ल.



जिसने थामा अम्बर को वो तुझे सहारा भी देगा,
जिसने नज़र अता की है, वो कोई नज़ारा भी देगा

छोड़ न यूँ उम्मीद का दामन, ऐसे भी मायूस न हो,
अभी छुपा है बेशक, पर वो कभी इशारा भी देगा

छोड़ अभी साहिल के सपने, मौजों से टकराता चल
यहीं हौसला नैया का, इक रोज किनारा भी देगा

दूर उफ़क से नज़र हटा मत, रात भले ये गहरी है
अंधियारों के बाद, वो तुझको सुबह का तारा भी देगा

देखे फ़कत सराब, मगर यूँ मूँद न तरसी आँखों को
प्यास का ये जज़्बा सहरा में, जल की धारा भी देगा

लाख मिटाए वक्त, तू अपनी कोशिश को जिंदा रखना,
हार का ये अपमान ही इक दिन, जीत का नारा भी देगा

साकी की नज़रें ही पीने वालों की तकदीरें हैं
करता है जो जाम फ़ना, वो जाम सहारा भी देगा

I am very much thankful to Manu 'Betakhallus' sahab for a motivational Gazal. You can get connected him on Facebook


Sunday, February 8, 2009

वक़्त की नफासत




बरसों पहले
जीवन मर्यादाएं
धूसर धुन्धल चित्र लिए
हस्तरेखाओं की तंग घाटियों में
हिचकोले खाती रहीं.....

ऊबड़-खाबड़
बीहड़ों में भटकती
गहरी निस्सारता लेकर
कैद में छटपटाती
आंखों में कातरता
भय और बेबसी की
अवांछित भीड़ लिए
इक तारीकी पूरे वजूद में
उतरती रही ......

वक्त नफ़ासत पूर्ण तरीके से
सीढ़ियों पर बैठा
तस्वीर बनाता रहा ...

तारों को
छू पाने की कोशिश में
न जाने कितने लंबे समय
और संघर्षों से
गुजर जाना पड़ा .....

आज मैंने
अंधियारों को चीरकर
चाँद से बातें करना
सीख लिया है
रातों को आती है चाँदनी
दूर पुरनूर वादियों की
गहरी तलहटी से
दिखलाती है मुझे
शिलाओं का नृत्य करना
उच्छवासों से पर्वतों का थिरकना
समुंदरी लहरों के बीच
सीपी में बैठी एक बूंद का
मोती बन जाना
उड़ते हुए पन्ने में
किसी नज़्म का
चुपचाप आकर
मेरी गोद में
गिर जाना

आज जब
दूर दरख्तों से
छनकर आती धूप
थपथपाती है पीठ मेरी
धैर्य सहलाता है घाव
हवाएं शंखनाद करतीं हैं
तब मैं ....
वे तमाम तपते हर्फ़
तुम्हारी हथेली पे रख
पूछती हूँ
उन सारे सवालों के
जवाब ...........!!

Monday, February 2, 2009

ऐसे तय किया कामयाबी का सफर

इस बार हमारे पास है बदायूं की एक लड़की की कहानी जिसने एक छोटे से शहर से निकलकर बॉलीवुड तक का सफर तय किया.
किसी भी जगह पहुचना आसान नही होता. बुलंदियों तक पहुँचने का सफर बहुत मुश्किल होता है. लेकिन महनत समर्पण और लगन है तो मंजिल तक पहुंचना मुश्किल भी नहीं है. सच्चाई तो यह है के कोई किसी को आगे नही बढाता हर किसी को अपना रास्ता ख़ुद ही खोजना पड़ता है.बदायूं की कोजी गुप्ता ने भी कुछ ऐसा ही किया और अब वो किसी परिचय की मोहताज नही हैं. उन्होंने बदायूं के नाम को सारी दुनिया में पहुँचाया. उनकी पाँच ऑडियो कैसेट, चार सीडी. और एक वीसीडी रिलीज़ हो चुकी है.. यह सफरनामा उन्होंने कैसे तय किया. उनको उनके परिवार से भी सहयोग मिला. उन्होंने दिल्ली में रहकर शिक्षा ली. वह बचपन से ही लगनशील रहीं. उन्होंने एक छोटे से शहर से निकल सारी दुनिया में अपने शहर का नाम रोशन कर दिया. उन्होंने यह सब कैसे किया इस के पीछे की कहानी काफी दुरूह है. सिर्फ़ हिंदुस्तान की नही है बलके दुनिया के मुस्लिम देशों से लेकर यूरोपियन देशों के लोग भी कोजी के फेन हैं. इतनी कामयाबी हासिल करने के बाद भी कोजी गुप्ता जब अपने घर से निकलती हैं तो कोई नहीं जानता के यह वही कोजी गुप्ता है जिन्होंने खुआजा पिया की शान में गाना गया है. उनके बारे में कुछ और जानने से पहले मिलते हैं उनकी कामयाबियों से.
सोनी कम्पनी ने उनकी सीडी रिलीज़ की महफिले बग़दाद. इसी की एक परोडी है. नूरे इलाही. दूसरी है बेबसी अच्छी लगी और मसर्राते जाने तमन्ना और इसके बाद उनकी एक के बाद एक सीडी रिलीज़ हो रही है. फिर तो चल पड़ा सिलसिला. कलियर शरीफ पर दर्शन कुमार को कोजी की आवाज़ कुछ जादुई लगी. कैसेट रिलीज़ हुई मेरे सबीर करम हो करम. बदायूं के ही फनकार तस्लीम आरिफ भी इसमे साथ में हैं.तीसरी कैसेट भी टीसीरीज़ से जरी हुई खुआजा पिया की शान निराली. यह वीसीडी दुनिया के लगभग सभी मुस्लिम देशों में बिक रही. इसके साथ ही कोजी ने कुछ भजन भी गाये है और कोजी अब बॉलीवुड के कुछ टॉप सिंगेर्स के साथ गाने की तय्यारी में हैं. वह शास्त्रीय संगीत से लेकर पॉप म्यूजिक फिल्मी गीत पंजाबी ,इंग्लिश, भजन, क़व्वाली, परोडी और अन्करिंग सभी पर कमांड रखती हैं.

Tuesday, January 27, 2009

एक आम इंसान की कहानी

एक आम इंसान की कहानी
पीलीभीत जिले के माधोटांडा के एक गुमनाम गाँव नौजल्हा नक्तहा के शंकर बर्कंदाज़ में पेड़ के पत्ते की पिपहरी बनाकर उससे शहनाई जैसी मधुर धुन निकलने की अनोखी प्रतिभा है. कला की साधना के अलावा कर्मठता और राष्ट्रीयता शंकर के व्यक्तित्व के दूसरे पहलु हैं. यह बात वन विभाग के अधिकारी भी बहतर ढंग से जानते हैं कि शंकर द्वारा किया गया वृक्षारोपड़ वन विभाग के भी वृक्षारोपड़ से बहतर साबित हुआ. ४२ वर्षीय शंकर की जीविका का मध्यम तो छोटी सी चाय की दुकान है, लेकिन इस इलाके में सैकडों हजारों लोगों की तरह उसने अपनी ज़िन्दगी का दायरा सिर्फ़ पेट भरने तक ही सीमित नही रखा. लेकिन यह उसका दुर्भाग्य है कि उसकी कला एक छोटे से गांव तक ही सीमित है. उसने अपनी कला का सृजन जंगलों में ही किया।
तीन दशक पहले जब वो किसी किसान के यहाँ नौकरी करने जाते थे. तो उन्हें जानवरों को चराने जंगल में ले जाना पड़ता था. यहाँ उन्होंने खाली समय में खेल खेल में पेड़ के पत्तों से पिपहरी बनाकर धुनें निकलने की शुरुआत की. शुरू में तो पिपहरी से सीटी जैसी आवाज़ निकलती थी लेकिन उन्हें महसूस हुआ कि इस से और बेहतर धुनें भी निकली जा सकती हैं. कई साल की कोशिश के बाद उन्होंने यह भी कर दिखाया। अब वह पिपहरी से शहनाई जैसी धुनें भी निकल लेते हैं. उनकी धुनें लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती हैं. अब तो वह कई तरह के प्रदर्शनों में भी अपने इस हुनर का प्रदर्शन कर चुके हैं. प्रदेश की राजधानी में भी वह अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं और कई तरह के प्रशस्ति पत्र भी उन्हें मिल चुके हैं. उनकी तमन्ना राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनने की है। शंकर के व्यक्तित्व का एक और पहलु है जो उन्हें हिम्मती साबित करता है. उनकी शुरुआत हालांके कटु अनुभव से हुई लेकिन बाद में उन्होंने ख़ुद को साबित कर दिखाया. मामला कुछ यूँ था कई साल पहले वन विभाग की ज़मीन पर अतिक्रमड़ के मसले पर शंकर का विरोध वन विभाग के अधिकारियों को इस कदर नागवार गुज़रा की अधिकारियों ने उन्हें वन माफिया घोषित कर दिया. बाद में वह डी. ऍफ़. ओ. से मिले और पूर्व डी. ऍफ़. ओ की ज्यादतियों के बारे में उन्हें बताया. बाद में अधिकारियों को उनकी कला और सद्भावना ने इस कदर प्रभावित किया की उन्होंने ने उनकी ग्राम प्रधान पत्नी को ग्राम वन्य समिति का अध्यक्ष और उनको सदस्य बनाकर ५० हेक्टयेर भूमि पर वृक्षारोपड़ की ज़िम्मेदारी सौंप दी। शंकर द्वारा किया गया वृक्षारोपड़ वन विभाग के वृक्षारोपड़ से बेहतर साबित हुआ. तत्कालीन वन मंत्री राजधारी सिंह यह वृक्षारोपड़ देखने भी आए और शंकर से प्रभावित होकर उन्होंने शंकर की सराहना की